Monday 11 May 2015

Julus/जुलूस written by Munshi Premchand

निम्नलिखित नाटक मैंने कक्षा नौ के साथ उनकी मौखिक परियोजना के अंतर्गत किया था । सभी छात्र-छात्राओं ने इस नाटक को करते वक्त न केवल आनंद ही लिया बल्कि वे हमारे देश के स्वतंत्रता संग्राम के बारे में भी काफी कुछ जानकारी प्राप्त कर पाए । हम सब ने इतिहास की अध्यापिकाओं के साथ स्वतंत्रता संग्राम के बारे में काफी चर्चा की ताकि नाटक करते समय छात्र- छात्राएं स्वतंत्रता संग्रामियों के भावों और भंगिमाओं को दर्शाने में कामयाब हों । इस क्रिया ने वास्तव में छात्र और छात्राओं की इस नाटक को अभिनीत करने में काफी सहायता की ।  मैं अपनी दोनों ही सहकर्मियों श्रीमती स्मृति केशव और श्रीमती सिसली (इतिहास अध्यापिकाएं ) के साथ-साथ मंच निदेशक और लेखक श्री  विजय नायर की शुक्रगुज़ार हूँ जिन्होंने अपना कीमती समय देकर मुझे इस नाटक के प्रस्तुतीकरण में सहायता दी। आशा है कि मेरे जैसे कई अध्यापक इस नाटक को रंगमंच पर प्रस्तुत कर पाएंगे ।                                

                                जुलूस (मुंशी प्रेमचन्द)

स्थान- नगर का माल रोड, बीरबल सिंह का कमरा, गंगा की ओर जाने वाली सड़क, गंगा का किनारा । 
पात्र- 
बीरबल सिंह- पुलिस में दरोगा      (३५ वर्ष)
इब्राहिम अली-आज़ादी के दीवाने  (५५ वर्ष)
शम्भुनाथ- दुकानदार                   (४० वर्ष) 
दीनदयाल- दुकानदार                  (४० वर्ष)
मैकू-चप्पल बेचनेवाला               (२५ वर्ष)
मिट्ठन बाई- दरोगा बीरबल सिंह की पत्नी, पति के अंग्रेजों के प्रति सेवा भाव के विरुद्ध                            (३० वर्ष)
सिपाही १,२- एक ही व्यक्ति आवाज़ बदलकर  (३० वर्ष)
युवती- १,२, ३                          (३० वर्ष)
वृद्धा- १,२                                 (६० वर्ष)
कैलाश-                                   (३० वर्ष)
स्वराजी- १, २, ३
व्यक्ति- १, २, ३
                                                दृश्य १
(नेपथ्य में, स्वराजियों का जुलूस आ रहा है। लोग अंग्रेज़ों के खिलाफ नारे लगा रहे हैं और भारत माता की जय-जयकार कर रहे हैं।) 
भारत माता की जय!
भारत माता की जय!
भारत माता की जय!
अंग्रेज़ों, भारत छोड़ो!
अंग्रेज़ों, भारत छोड़ो!
(सड़क से लगे बाज़ार में दुकानदार बहस कर रहे हैं।)
शंभुनाथ- (नारों को सुनकर व्यंग्य से) देख रहे हैं न दीनदयाल जी! सबके सब काल (मृत्यु) के मुँह में जा रहे हैं। स्वराज्य लाने चले हैं। आगे पुलिस सवारों का दल खड़ा हुआ है, मार-मार कर भगा देगा। 
दीनदयाल- महात्मा जी भी सठिया गए हैं (बड़ी उम्र के कारण सोचने-समझने की शक्ति कम हो जाना ) शंभुनाथ भैया! जुलूस निकालने से स्वराज्य मिल जाता तो कब का मिल गया होता! तनिक देखो तो, जुलूस में है कौन? लौंडे-लफंगे (कुछ काम-धंधा नहीं करने वाले बेकार लड़के) सिरफिरे (जिनका दिमाग ठीक काम नहीं करता)! शहर का कोई बड़ा आदमी दिख रहा? तो फिर हमें क्या पड़ी  है, अपनी दुकान बन्द कर जुलूस में आएँ? 
(बाज़ार में चप्पलें बेच रहा मैकू उन दोनों की बातें सुन ठठाकर हँस (ठहाका मार कर हँसना) पड़ता है।)
शंभुनाथ- (चिढ़कर) तू अपनी चट्टियाँ (लकड़ी की चप्पल ) और चप्पलें बेच मैकू, ठिठया (हँसना) काहे रहा? लगता है आज बिक्री अच्छी हो गई? 
मैकू- बिक्री-विक्री छोड़ो शम्भू भैया! हँस रहा हूँ, तुम्हारी बात पे। 
शम्भुनाथ- किस बात पे?
मैकू- अरे बड़े आदमी काहे जुलूस में आने लगे? अंग्रेजी राज में उन्हें कौन कमी? ठाठ से बंगलों और महलों में रहते हैं। मोटरों में घूमते हैं। मर तो हम लोग रहे, जिनकी रोटियों का ठिकाना नहीं (पेट भरने के लिए निश्चित आमदनी नहीं) ।
शंभुनाथ- (कटाक्ष से) तुम यह सब बातें क्या समझोगे मैकू! जिस काम में चार बड़े आदमी अगुआ (आगे आने वाला, नेता ) होते हैं ...... सरकार पर भी उसकी धाक (रोब) बैठ जाती है। लौंडे-लंफगों का गोल (एक ही प्रकार के लोगों का झुंड) भला हाकिमों की निगाह में क्या जँचेगा?
मैकू- हमारा बड़ा आदमी तो वही है जो लंगोटी बाँधे नंगे पाँव घूमता है। जो हमारी दशा सुधारने के लिए अपनी जान हथेली पर लिए फिरता है। वह है महात्मा गांधी। उसके आगे हमें किसी बड़े आदमी की परवाह नहीं!
         (नेपथ्य में जुलूस के नारे प्रखर (तेज़ , ज़ोर से ) होने लगते हैं)
दीनदयाल- नया दरोगा बीरबल सिंह बड़ा जल्लाद (फाँसी देने वाला, क्रूर और निर्दयी ) है मैकू! जुलूस के चौरास्ते (चौराहा जहाँ चार रास्ते मिलते हैं) पर पहुँचते ही हंटर लेकर पिल पड़ेगा (टूट पड़ना) । फिर देखना ये स्वराजी कैसे दुम दबाकर भाग खड़े होंगे (डरपोक कुत्ते की तरह भागना) । उधर देख मैकू! देख! सिपाहियों ने जुलूसियों को रोक दिया है .......
                                                   (संगीत)
                                                 (दृश्यांतर)   
                                                    दृश्य २
(सिपाहियों के साथ घोड़े पर सवार दरोगा बीरबल स्वराजियों पर गरजता है।)
बीरबल सिंह- रुक जाओ.......तुम लोगों को आगे जाने का हुक्म नहीं है।
(जुलूस में दबी ज़ुबान से खुसुर-फुसुर-ये नया दरोगा है.......हाँ भई, इसी का नाम बीरबल सिंह है।........सुना है बड़ा जल्लाद .......शांत भाइयों! शांत! सुनो इब्राहिम अली दरोगा से क्या कह रहे हैं?)
इब्राहिम अली- (ऊँचे स्वर में) दरोगा साहब, मैं आपको इत्मीनान (भरोसा)  दिलाता हूँ कि किसी किस्म का दंगा-फसाद न होगा। हम दुकानें लूटने या मोटरें तोड़ने नहीं निकले हैं..... हमारा मकसद (उद्देश्य, ध्येय) इससे कहीं ऊँचा है। 
बीरबल सिंह- इब्राहिम साहब! मुझे यह हुक्म है कि जुलूस यहाँ से आगे न जाने पाए।
इब्राहिम अली- आप अपने अफ़सरों से ज़रा पूछ लें?
बीरबल सिंह- मैं इसकी कोई ज़रूरत नहीं समझता?
इब्राहिम अली- तो हम लोग यहीं बैठते हैं। जब आप लोग चले जाएंगे तो हम निकल जाएंगे। अहिस्ता से पीछे हट लो।
(घोड़ों की टापों के मुड़ने का स्वर)
इब्राहिम अली- (कराहते हुए) क्यों कैलाश, ये आवाज़ें कैसी हैं? क्या लोग शहर से आ रहे हैं? 
कैलाश-(चिंतित होकर) जी हाँ...... हज़ारों आदमी हैं।
इब्राहिम अली- तो अब खैरियत (कुशल-मंगल) नहीं। झंडा लौटा दो। हमें फ़ौरन लौट चलना चाहिए। नहीं तूफान मच जाएगा। हमें अपने भाइयों से लड़ाई नहीं करनी। कहो, कहो सबसे, वापिस लौट लें। 
कैलाश- ये आप क्या कर रहे हैं? उठने की कोशिश क्यूँ कर रहे हैं? जैसा आप कहेंगे, वैसा ही होगा। (लोगों की ओर मुड़कर) भाइयों, इब्राहिम चचा के लिए जल्दी से स्ट्रेचर तैयार करो। झंडियों के बाँसों को साफ़ों (पगड़ी) और रूमालों से बाँधो। जल्दी करो।
इब्राहिम अली- (काँपती आवाज़ में) लोगों की मनोवृत्ति (सोचने का तरीका, मन की स्थिति) में आया वह परिवर्तन ही हमारी असली विजय है। हमें किसी से लड़ाई करने की ज़रूरत नहीं। हमारा उद्देश्य केवल जनता की सहानुभूति (संवेदना, हमदर्दी) प्राप्त करना है। उनकी मनोवृत्ति को बदल देना है। जिस दिन हम इस लक्ष्य पर पहुँच जाएंगे, उसी दिन स्वराज्य सूर्य उदय होगा। वंदे मातरम।
                  (सभी जोशीले स्वर में वंदे मातरम दोहराते हैं।)
                                  (संगीत-आज़ादी की धुन)
                                            (दृश्यांतर)
                                              दृश्य ५
(सुबह के समय दरोगा बीरबल सिंह की पत्नी मिट्ठन बाई उनकी ओर चाय का प्याला बढ़ाती है।)
मिट्ठन बाई- (रुष्ट स्वर में) लीजिए.....चाय पीजिए।
बीरबल सिंह- (चाय का लंबा घूंट भर) मैं क्या करता उस वक्त मिट्ठन? पीछे डी. एस. पी. खड़ा हुआ था। जुलूस को रास्ता दे देता तो अपनी जान मुसीबत में फँसती।
मिट्ठन बाई- तुम कम से कम इतना तो कर ही सकते थे, उन पर डंडे न चलने देते? पुलिसवालों का काम आदमियों पर डंडे चलाना है? कल को तुम्हें अपराधियों को बेंत(पतली छड़ी) लगाने का काम दिया जाए तो शायद तुम्हें बड़ा आनन्द आएगा। क्यों? 
बीरबल सिंह- (खिसियाकर-झेंपकर चिढ़ते हुए) तुम तो बात नहीं समझती हो।
मिट्ठन बाई- हाँ, औरतों के पास दिमाग थोड़े ही होता है।
बीरबल सिंह- मेरे कहने का मतलब यह नहीं था।
मिट्ठन बाई- (लम्बी साँस भरकर) मतलब मैं खूब समझती हूँ। तुमने सोचा होगा डी.एस.पी. पीछे खड़ा है। ऐसी कारगुज़ारी (करामात, बहुत बड़ा काम) दिखाने का अवसर शायद फिर कभी मिले या न मिले। तुम क्या समझते हो, उस जुलूस में कोई भला आदमी न था? अरे, उसमें कितने ही आदमी ऐसे थे जो तुम्हारे को नौकर रख सकते हैं। विद्या में तो शायद अधिकांश तुमसे अधिक पढ़े-लिखे हों। मगर, तुम उन पर डंडे चला रहे थे, उन्हें घोड़े से कुचल रहे थे। वाह री जवाँमर्दी (बहादुरी, वीरता, नौजवानी)!
बीरबल सिंह- (बेहयाई -बेशरमी, निर्लज्जता से हँसता हुआ) जानती हो मिट्ठन, डी.एस.पी. ने मेरा नाम नोट कर लिया।
मिट्ठन बाई- (उपेक्षा-निरादर,ध्यान न देना से)ज़रूर नोट कर लिया होगा ...... और शायद तुम्हें जल्दी तरक्की भी मिल जाए; मगर बेगुनाहों के खून से हाथ रंगकर तरक्की पाई, तो क्या पाई? यह तुम्हारी कारगुज़ारी का इनाम नहीं, तुम्हारे देशद्रोह (देश के साथ विश्वासघात, गद्दारी) की कीमत होगी।
बीरबल सिंह- (चाय का कप रखते हुए) मुझे लगा था, कि तुम यह जानकर खुश हो ओगी?
मिट्ठन बाई- (बात काटते हुए) खुश? खुश तो मैं तब होऊँगी जब तुम किसी खूनी को खोज निकालोगे। किसी डूबते हुए को बचाओगे।
(दरवाजे पर थाप देकर सिपाही बाहर से पुकारता है।)
सिपाही- हुज़ूर! हुज़ूर भीतर आ सकता हूँ? 
बीरबल सिंह-क्या है?
सिपाही- हुज़ूर, यह लिफाफा लाया हूँ।
बीरबल सिंह-लाओ । (लिफाफा खोलने की ध्वनि)
मिट्ठन बाई- (व्यंग्य से) क्या तरक्की का परवाना(लिखित आज्ञा, नियुक्ति पत्र) आ गया?  
बीरबल सिंह-(झेंपते हुए) क्यूँ मेरा मज़ाक बना रही हो? हुहँ, आज फिर कोई जुलूस निकलने वाला है......मुझे उसके साथ रहने का हुक्म हुआ है।
मिट्ठन बाई- फिर तो तुम्हारी चाँदी है (बहुत लाभ, फायदा ही फायदा) , तैयार हो जाओ।
बीरबल सिंह- क्या मतलब?
मिट्ठन बाई- यही कि, आज फिर वैसे ही शिकार मिलेंगे। खूब बढ़-बढ़ कर हाथ दिखाना। डी.एस.पी. भी ज़रूर आएँगें। अबकी तुम इंस्पेक्टर बन जाओगे.....सच!
बीरबल सिंह- कभी-कभी तुम बेसिर-पैर(बेतुकी, निर्मूल)  की बातें करने लगती हो मिट्ठन। मान लो, मैं जाकर चुपचाप कह्ड़ा हो जाऊँ, तो जानती हो क्या नतीजा होगा? नालायक समझा जाऊँगा मैं और मेरी जगह कोई दूसरा आदमी भेज दिया जाएगा। कहीं डी.एस.पी. को शुबहा (शक) हो गया कि मुझे स्वराज्यवादियों से सहानुभूति है तो वह मुझे ज़लील करने (लज़्ज़ित करना, नीचा दिखाना, अपमानित करना) से न छोड़ेगा। बरखास्त (कार्य से वंचित करना, निलंबित करना) न हुआ, लाइन की हाज़िरी(पुलिस के किसी भी ज़िम्मेदारी वाले काम से दूर करना) हो ही जाएगी।
मिट्ठन बाई- बहुत बुद्धिमान हो।
बीरबल सिंह- बुद्धिमान न सही, पर इतना ज़रूर जानता हूँ कि ये लोग देश और जाति का उद्धार(मुक्त करना, ऊपर ले जाना) करने के लिए लड़ रहे हैं। यह भी जानता हूँ कि सरकार इस ख्याल को कुचल डालना चाहती है। (नि:श्वास-गहरी साँस भरकर) ऐसा गधा नहीं हूँ मिट्ठू गुलामी की ज़िंदगी पर गर्व करूँ। मगर, परिस्थिति से मज़बूर हूँ.......लाओ, मेरी वरदी दो........
                      (संगीत-आज़ादी के किसी गीत की धुन)
                                          (दृश्यांतर)
                                            दृश्य-६
(इब्राहिम अली की शवयात्रा का जुलूस चला आ रहा है।)
बीरबल सिंह- (विस्मय से) सिपाही, इस जुलूस में इतना सन्नाटा क्यों है? 
सिपाही-हुजूर.....यह आज़ादि के दीवानों का जुलूस नहीं है। शहीद के मातम (मृत्यु का शोक) का जुलूस है।
बीरबल सिंह- कौन शहीद हो गया?
सिपाही- हुज़ूर, वही इब्राहिम अली। आपकी ही लाठी से तो उनका सिर फटा था। मरते समय वसीयत(वारिस सम्बंधी आदेश, मरने के बाद अपनी सम्पत्ति के प्रबन्ध का आदेश) कर गए हैं। मेरी लाश को गंगा में नहलाकर दफनाया (मृत शरीर को ज़मीन में गाड़ा) जाए और मेरी मज़ार(महापुरुष की कब्र) पर स्वराज्य का झंडा खड़ा कर दिया जाए।
बीरबल सिंह- (बात को उड़ाते हुए) ठीक है, ठीक है। सवारों से कहो, हुक्म है। जुलूस से पाँच-पाँच गज़(३६ इंच की लम्बाई) के फ़ासले(दूरी) पर चलें।
सिपाही- जी हुज़ूर। (घोड़े की टाप आगे बढ़ती है)
बीरबल सिंह- (स्वत:/अपने-आप) जुलूस के पीछे महिलाओं की इतनी लम्बी कतार? और उनकी पहली ही कतार में मिट्ठू? ना, ना, ना, आँखों को भ्रम(गलतफहमी, संदेह, संशय) हो रहा है। मिट्ठू और इस मातम के जुलूस में? लेकिन, है तो मिट्ठू ही। उसने भी मुझे देख लिया है। (नि:श्वास भरकर) कहीं डी.एस.पी. साहब को पता चल गया, जुलूस में मेरी पत्नी मिट्ठन भी शरीक(शामिल) है तो मुअत्तल(बरखास्त) करके छोड़ेगा।
(तभी एक के बाद एक युवतियाँ दरोगा पर कटाक्ष (तीखी बात, ताना, व्यंग्य करना) करती हैं।)
युवती- कोतवाल(पुलिस अधिकारी) साहब! कहीं हम लोगों पर डंडे न चला दीजिएगा। आपको देखकर भय लग रहा है।
बीरबल सिंह- (अपने में लौटते हुए) हाँ आँ........
युवती २- आप ही के कोई भाई तो थे, जिन्होंने उस रोज़ माल के चौराहे पर इस वीर पुरुष पर आघात(चोट) किए थे?
मिट्ठन बाई-आपके कोई भाई न थे, आप खुद ही थे।
(कई युवतियाँ आश्चर्य से, समवेत स्वर में-अच्छा! यह वही महाशय{सज्जन, भद्र पुरुष} हैं?)
युवती ३- महाशय, आपको नमस्कार। यह आपकी ही कृपा का फल है कि आज हम भी आपके डंडे के दर्शन के लिए आ खड़ी हुई हैं।
बीरबल सिंह-(स्वत:) मिट्ठू आज तुम घर चलो, फिर तुम्हारी खबर लेता (हाल-चाल पूछना, जवाब सवाल करना, डाँटना, फटकारना, दंड देना) हूँ।
युवती १- (व्यंग्य करते हुए) सुनिये दरोगा साहब। हम एक जलसा(समारोह, उत्सव) करके आपको जयमाला पहनाएँगे और आपका यशोगान(कीर्ति गीत, बहुत अधिक प्रशंसा) करेंगे।
युवती २- देखने में आप बिल्कुल अंग्रेज मालूम होते हैं, इतने गोरे जो हैं। क्यों अम्मा जी, गल्त कह रही हूँ।
बुढ़िया- (थर्राते स्वर में) मेरी कोख से ऐसा बालक जन्मा होता, तो उसकी गरदन मरोड़ देती।
बीरबल सिंह- (ग्लानि {दु:ख, खेद} से भर्राए स्वर में) औरतों के व्यंग्य-बाणों का सामना मैं और नहीं कर सकता। इनके सामने से हट जाना ही उचित है। (घोड़ों की टापों के मुड़ने का स्वर) ये, मुझे ही क्यों बार-बार इन कामों के लिए तैनात (किसी काम के लिए नियुक्त) किया जाता है, और अधिकारी भी तो हैं, उन्हें क्यों नहीं भेजा जाता? क्या मैं ही सबसे गया-बीता (निकृष्ट, बेकार) हूँ। भाव-शून्य (जिसके हृदय में भावनाएँ न हों)। मिट्ठू इस वक्त मुझे कितना कायर और नीच समझ रही होगी? शायद इस वक्त मुझे कोई मार डाले तो भी वह ज़बान न खोलेगी। शायद मन में प्रसन्न होगी।
                      (संगीत- आज़ादी के किसी गीत की धुन)
                                              (दृश्यांतर)
                                                दृश्य ७
(इब्राहीम अली का जनाज़ा (मृत शरीर को दफ़नाने ले जाने वाले व्यक्तियों का समूह या शव यात्रा) गंगा के किनारे पहुँच चुका है। भीड़ उनकी जय-जयकार कर रही है- इब्राहीम अली अमर रहें.......इब्राहीम अली अमर रहें......वंदे मातरम! वंदे मातरम!)
बीरबल सिंह-(स्वत:) शव (लाश, मृत शरीर) को गंगा स्नान करा रहे हैं लोग! इब्राहीम साहब के पीले माथे पर लाठी की चोट का निशान साफ़ नज़र आ रहा है। छि:, यह मैंने क्या किया; जिस मनुष्य के दर्शनों के लिए, जिसके चरणों की रज (मिट्टी, धूल) मस्तक (ंमाथा, ललाट) पर लगाने के लिए लाखों आदमी विकल(व्याकुल) हो रहे हैं......उसका मैंने इतना अपमान किया? सच कहूँ तो लाठी के निर्दय प्रहार में कर्त्तव्य भाव लेशमात्र (तनिक, नाम का, बहुत थोड़ा) न था, थी तो केवल डी.एस.पी. को खुश करने की लिप्सा (लोभ, लालसा) ! मिट्ठू ने मुझ पर गलत आरोप(इलज़ाम, दोष) नहीं लगाया। 
सिपाही- हुज़ूर! नहलाने के बाद मुरदे को अब खाक(मिट्टी, धरती) में सुलाने ले जाया जा रहा है।
बीरबल सिंह- (चौंककर) हाँअँ, जुलूस के साथ, जैसा कहा था, सवार दूरी बना कर चलें।
सिपाही- (घोड़े की टापों के हल्के स्वर) बड़ा सरकश (उद्दंड, बागी, विद्रोही) आदमी था हुज़ूर।
बीरबल सिंह- (उग्र {तीव्र, तेज़} होकर) चुप रहो। जानते हो, सरक्श किसे कहते हैं? सरकश वे कहलाते हैं जो डाके मारते हैं, चोरी करते हैं, खून करते हैं। उन्हें सरकश नहीं कहते, जो देश के लिए अपनी जान हथेली पर लिए (मृत्यु की परवाह न करना) फिरते हैं। हमारी बदनसीबी है कि हमें जिनकी मदद करनी चाहिए, उनका विरोध कर रहे हैं।
                            (संगीत-आज़ादी के किसी गीत की धुन)
                                              (दृश्यांतर)
                                                दृश्य ८
(क्वींस पार्क में मिट्ठन बाई दुविधा में बैठी है।)
मिट्ठन बाई- (स्वत:) सभी लोग अंतिम संस्कार के बाद अपने-अपने घर लौट रहे हैं। मैं कहाँ जाऊँ? नैहर (विवाहित स्त्री के पिता का घर) जा सकती हूँ, लेकिन वहाँ से महीने दो महीने में वापस इसी घर में आना पड़ेगा। नहीं! मैं किसी की आश्रित(निर्भर, किसी के ऊपर सहारा लिए हुए) न बनूँगी। क्या मैं अपनी गुज़र-बसर(निर्वाह, गुज़ारा, काम चलना) के लिए नहीं कमा सकती? आज जुलूस के लोगों को अगर पता चल जाता कि मैं उसी दरोगा, बीरबल सिंह की पत्नी हूँ, तो मुझ पर भी औरतें ताने कसतीं। उस इंसान के साथ कैसे रहूँ, जिसके हाथ इब्राहिम अली की हत्या करते ज़रा भी न काँपे? जाने इब्राहिम अली की बूढ़ी विधवा (जिस स्त्री के पति की मृत्यु हो चुकी हो) पर क्या गुज़र रही होगी, सुना है उनके कोई बाल-बच्चा नहीं है। अकेली बैठी रो रही होगी। कोई तसल्ली देने वाला भी पास न होगा। क्यों न उसके पास चलूँ?
                         (संगीत- आज़ादी के किसी गीत की धुन)
                                             (दृश्यांतर)
                                                दृश्य ९
       (मिट्ठन बाई इब्राहिम अली के घर के दरवाज़े पर थाप देती है।)
मिट्ठन बाई- इब्राहिम साहब का घर यही है......
वृद्ध महिला-(क्षीण {कमज़ोर, निर्बल} स्वर में) दरवाज़ा खुला है भाई, अन्दर आ जाइए।
मिट्ठन बाई- (भरे हृदय से {दु:खी मन से}) जी मैं, मैं मिट्ठन हूँ। उसी दरोगा की अभागी पत्नी, जिसकी लाठी से (गला रूँध आता है) उनके प्राण लिए.......
वृद्ध महिला- (भीगा नि:श्वास भर) वे मरे कहाँ बेटी......? वे तो देश के लिए शहीद हो गए। तुम कहती हो तुम्हारे दरोगा पति ने उन्हें मारा, इधर देखो, (संकेत करती है) ये नौजवान कहता है कि उनकी मौत के लिए ये ज़िम्मेदार है। यह मेरा अपराधी है, मुझसे सज़ा माँग रहा.....तुम.....
(बीरबल मिट्ठन की ओर मुड़ता है।)
बीरबल सिंह- मैं .....मिट्ठू मैं, मैं यहाँ.....
मिट्ठन बाई- (क्रोध से भरकर) तुम? तुम यहाँ कैसे आए?
बीरबल सिंह- (पश्चाताप{पछतावा} से भरे स्वर में) उसी तरह मिट्ठू, जैसे तुम आई हो। मैं भी यहाँ अपने अपराध के लिए क्षमा माँगने आया हूँ। जानता हूँ, मैंने अक्षम्य (जो क्षमा के योग्य न हो) अपराध किया है मगर, अब मेरी आँखें खुल गई हैं। अब मैं यह पुलिस की नौकरी नहीं करूँगा.....उसके लिए चाहे मुझे जो भी कीमत चुकानी पड़े......
मिट्ठन बाई- (भाव विह्वल {भावना से आतुर} होकर) तुम, सच कह रहे हो?
बीरबल सिंह- विश्वास करो।
मिट्ठन बाई- आज मेरे जन्म जन्मांतर (अनेक जन्मों के , जनम-जनम के) के क्लेश (दु:ख, पीड़ा, चिन्ता) मिट गए.....
वृद्ध महिला- (आँसू पोंछते हुए) मुझे खुशी हो रही है, मेरे पति इब्राहिम अली का बलिदान (कुरबानी, अर्पण करना) व्यर्थ नहीं गया। तुम्हारे जैसे नौजवान अंग्रेजों की ताबेदारी (आधीनता, नौकर होने का भाव) से मुक्त हो, स्वराजियों के साथ हो रहे, यही जीत है। बोलो....वंदे मातरम! वन्दे मातरम!
           (बीरबल सिंह और मिट्ठन बाई दोहराते हैं-वंदे मातरम।)
                                (नाट्य रूपांतर-चित्रा मुद्गल)
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