Tuesday 12 May 2015

Bahere Log/बहरे लोग- Collection

                                    बहरे लोग

यह नाटिका मैंने मुंबई में पढ़ाते समय कुछ छात्रों के साथ की थी । जब मैंने १९९९ में वैली स्कूल में पढ़ाना शुरू किया तब फिर से इस नाटिका को कक्षा सात के छात्र-छात्राओं के साथ किया । यह एक हास्य से भरपूर नाटिका है जो दो तीन मुख्य कार्यक्रमों के बीच के रिक्तस्थान को भरने के लिए भी कर सकते हैं । 
परिचय- हमारी इस नाटिका का शीर्षक है- बहरे लोग। इसकी कहानी ऐसी है कि एक अज़नबी जो मंगलौर से बेंगलूरू नया आया है, उसे मुल्की जाने का पता चाहिए। वह ऐसे लोगों के बीच में फँस जाता है जो थोड़ा ऊँचा सुनते हैं। वह मुल्की को मुर्गी समझते हैं। बाप भी उसकी बात नहीं समझता, बेटा भी नहीं। जहाँ तक कि बेटी भी नहीं। वह बेटी को समझाने के लिए इशारों से बताता है पर बेटी उसके इशारों का गल्त अर्थ लेती है। उसे लगता है कि वह उसे शादी के लिए प्रपोज कर रहा है। वह उसके साथ ही चलने को तैयार हो जाती है।

बेटा- अंडे लो, अंडे लो, ५० पैसे का एक अंडा, ६ रुपए के एक दर्जन अंडे।
अजनबी- मैं बेंगलूरू में नया आया हूँ, मुझे मुल्की जाने का रास्ता चाहिए। 
बेटा- आपको मुर्गी चाहिए। हमारी दूकान बहुत बड़ी है। हमारे पास बहुत अच्छी-अच्छी मुर्गियाँ हैं। ये देखिए, उन मुर्गियों के निकले अंडे। कितने बड़े अंडे हैं। मुर्गी भी इनसे बहुत बढ़िया निकलेगी।
अज़नबी- (ज़ोर से) अरे बाबा, मुर्गी नहीं , मुझे मुल्की जाना है।
बेटा- आप को बढ़िया मुर्गी चाहिए। ठीक है, मैं अपने अब्बा हुजूर को बुलाता हूँ। आप उनसे बात करें। आप को पता चलेगा कि हमारी विदेशी किस्म की मुर्गी सबसे बढ़िया है। 
अज़नबी-(सिर पर हाथ रखकर) हे भगवान! मैं कहाँ फँस गया।
(अब्बा और बेटे का प्रवेश। अब्बा ने लुंगी ऊपर बाँधी हुई है। अज़नबी उसे ऊपर से नीचे देखता है।) 
अब्बा- ऐ मियाँ, तुम नीचू से ऊपर क्या देखता है हमको? फरमाओ, क्या काम है?
अज़नबी- बड़े मियाँ, मैं बेंगलूरू में नया-नया आया हूँ। मुझे मुल्की जाने का पता चाहिए। मैं आपके बेटे को कब से समझा रहा हूँ, पर इसे मेरी बात समझ में नहीं आ रही। 
अब्बा मियाँ- क्या सलीं मियाँ! तुम्हें इतनी छोटी-सी बात समझ में नहीं आती। गधे की औलाद!
बेटा- जी, मैं आपकी औलाद हूँ।
अब्बा जान- चुप बे, ज्यादा बक-बक मत कर। अरे मियाँ,लो हम तुम्हें एक से एक बढ़िया मुर्गी पेश करते हैं। हमारे पास देशी-विदेशी सब मुर्गियाँ हैं। ये देखो- ये लंदन की मुर्गी का अंडा है। कितना बड़ा अंडा है! और तो और इसका डबल आमलेट बनता है। ये गोवा की मुर्गी का अंडा है। कितनी सुन्दर शेप है! इससे कितनी स्मार्ट मुर्गी निकलेगी। इस अंडे का आमलेट जो खाए, कभी न भूल पाए।
अज़नबी- बड़े मियाँ, क्या तुम दीवाने हो गए हो-मैं मुल्की जाने का रास्ता पूछ रहा हूँ, मुर्गी नहीं चाहिए मुझे।
अब्बा जान- वल्लाह, मियाँ बड़े कमाल के आदमी हो, हम तुम्हें जो डिस्काउण्ट चाहोगे, वो भी दे देंगे। तुम फरमाओ तो सही, कितनी मुर्गियाँ चाहिए?
अज़नबी- (गुस्से से) मुझे मुल्की जाना है। मुर्गी नहीं चाहिए मुझे।
अब्बा जान- अच्छा मियाँ, नाराज़ क्यों होते हो? तुम सीधे चले जाओ। दाँये जाना फिर थोड़े कदम चलकर बाँये मुड़ना। एक पेड़ के पास एक और दुकान है। 
अज़नबी- क्या, भीड़ है? 
अब्बा जान- हम भीड़ नहीं , हम पेड़ की बात कर रहे हैं। काले चश्मे की जगह हम तुम सफेद चश्मा पहनो। वहाँ जाकर पता कर लो । हमारी मुर्गी से बढ़िया मुर्गी नहीं मिलेगी, और दाम भी ज़्यादा होंगे।
अज़नबी-(गुस्से से) लाहौर विलाकुअत! बड़े मियाँ क्या अंटशंट बके जा रहे हो । मैं क्या बोल रहा हूँ, आप क्या फरमा रहे हैं? मैं तो चला।
(जैसे ही आदमी चलता है, बाप-बेटा उसे खींचते हैं।)
दोनों- अच्छा हम अपनी बेटी सैदा को लाते हैं। वह तुम्हारी बात ज़रूर समझेगी। 
अब्बा जान-अमां सलीम मियाँ, जरा सैय्यदा को लिवा लाओ।
अज़नबी- (श्रोताओं से) बाप-बेटे तो बहरे हैं ही, न जाने बेटी क्या गुल खिलाएगी? वो तो बहरी के साथ गूँगी भी होगी। उसे किस तरह अपनी बात समझाऊँ?
(तभी बेटी का प्रवेश- आदमी उसे देखता रह जाता है, बेटी शर्माती है।)
अज़नबी-(गूँगे की तरह इशारे करके बोलता है।) उसका मतलब है-तुम्हारा बाप और भाई उसकी बात समझे नहीं हैं। उसे मुल्की जाना है, मुर्गी नहीं चाहिए।
बेटी-(समझते हुए कि वह उससे शादी का प्रस्ताव दे रहा है) बाप माने या न माने, भाई माने या न माने, जब हम मियाँ बीबी राजी, तो क्या करेगा काज़ी?
                                        (परदा गिरता है।) 

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