Sunday 30 November 2014

JONK (LEECH) by Upendra Nath Ashk in Hindi

मैंने यह ब्लॉग शुरू करने पर विचार किया क्योंकि वैली स्कूल में पढ़ाते वक्त हम भाषा के अध्यापक और अध्यापिका साल में दो या तीन बार असेम्बली प्रस्तुतीकरण या फिर सांस्कृतिक कार्यक्रम में नाटक या नाटिकाएं या फिर कविता वाचन आदि अवश्य ही करते हैं । वैली स्कूल में मुझे पढ़ाते हुए १६ साल हो गए हैं । इन वर्षों में हर वर्ष मैंने ५-६ नाटक या नाटिकाएं किए हैं जो मौलिक और प्रसिद्ध लेखकों के द्वारा लिखे गए दोनों ही प्रकार के हैं । मैं जितना हो सकेगा , सभी नाटकों और नाटिकाओं को ब्लॉग में आपके साथ बांटना चाहूंगी ताकि ज्यादा से ज्यादा अध्यापक और अध्यापिकाएं लाभान्वित हो सकें । आशा है कि सभी को मेरा यह प्रयास पसंद आएगा । 

यह नाटक हाल ही में २७ नवम्बर कक्षा नौ के छात्र -छात्राओं के साथ उनकी मौखिक परियोजना के रूप में किया । सभी को यह बहुत पसंद आया । इस कक्षा में कुल १३ छात्र और छात्राएं हैं । पूरा नाटक चार दृश्यों में किया गया । चार छात्राओं ने भोलानाथ, चार छात्रों ने आनंद , दो छात्रों ने बनवारी, दो छात्रों ने पड़ोसी और एक छात्रा ने कमला की भूमिका अभिनीत की । मौलिक नाटक दो दृश्यों में है पर हमने इसे चार दृश्यों में किया । इसलिए चार दृश्यों में ही इसे लिख रही हूँ । आशा है कि आप सब इस नाटक का उपयोग कर पाएंगे । 

पोशाक- भोलानाथ - सफेद धोती, हरा कुर्ता और सफेद पगड़ी 

        आनंद - सफेद धोती, नीला कुर्ता और चश्मा 
       बनवारी - सफेद धोती, नारंगी कुर्ता और गांधी टोपी 
       हिन्दू पड़ोसी - सफेद धोती , कुर्ता और बांधनी पगड़ी 
       सिक्ख पड़ोसी - लुंगी , टी -शर्ट , पगड़ी 
       कमला - साड़ी                                   
                                  जोंक
                       पहला दृश्य
स्थान- भोलानाथ के घर का एक कमरा । दो चारपाइयाँ, दो कुर्सियाँ, एक छोटी मेज़ । प्रोफेसर आनन्द मेज़ के पास रखी कुर्सी पर बैठे एक समाचार-पत्र के पन्ने उलट रहे हैं । वे एम.ए करके अभी-अभी ही पढ़ाने लगे हैं इसलिए अभी भी छात्र ही लगते हैं । एक तहमद और कमीज पहने बैठे हैं , हज़ामत बनाने के लिए उनके चेहरे पर शेंविग क्रीम लगी है और मेज़ पर हज़ामत का खुला सामान भी पड़ा है।
दांई ओर से भोलानाथ आता है, वह शरीर में आनन्द से थोड़ा मोटा है पर चेहरे से बुद्धिमान नहीं लगता। सीधा-साधा और सनकी-सा लगता है, बार-बार अपने कन्धे झाड़ता है। उसके मुख पर घबराहट नज़र आ रही है।

भोलानाथ- (परेशानी के स्वर में) यह फिर आ गया आनन्द! तुम प्लीज मेरी सहायता करो।

आनन्द-(समाचार-पत्र रखकर, कौन आ गया?  (भोलानाथ चारपाई पर बैठता है)

भोलानाथ- यह एक बार आ जाता है, तो जाने का नाम नहीं लेता ।

आनन्द- कुछ पता भी चले , कौन है यह?

भोलानाथ- अरे, कौन, क्या? है एक मेरे गाँव का, मैं उसे अच्छी तरह से जानता भी नहीं ।
(कंधे झाड़ता है)

आनन्द-(आश्चर्य से) तो यहाँ क्यों आया है? (कुर्सी से उठकर घूमते हैं)

भोलानाथ- ( हँसकर) बात यह है कि वह मेरा छोटा भाई है न परसराम, जैसे वह आवारा है, वैसे ही उसके दोस्त हैं । उसका एक मित्र है सोम या मोम या क्या जाने क्या? वह जब भी आता था, अपने इसी भाई की प्रशंसा करता था।

आनन्द- देशभक्त है?

भोलानाथ-खाक!
आनन्द-कवि?

भोलानाथ- इसकी सात पुश्तों में किसी ने कविता का नाम नहीं सुना!

आनन्द- तो डॉक्टर, हकीम, वैद्य.....?

भोलानाथ- (चिढ़कर) तुम सुनते तो हो नहीं। वे थे न प्रसिद्ध अभिनेता-प्रेम........यह उनके साथ रह चुका है।

आनन्द-कौन प्रेम?

भोलानाथ- प्रेम चोपड़ा ।

आनन्द- (ठहाका लगाकर) तो ये ऐक्टर है?

भोलानाथ-(कंधे झाड़कर) अब यह तो मुझे मालूम नहीं कि इसने प्रेम चोपड़ा कि प्रसिद्ध फिल्म "खून का बदला खून" और "दर्दे ज़िगर" में कोई अभिनय किया है या नहीं , पर सुना था कि यह उनका दायाँ हाथ है।

आनन्द- इस बात से तुम्हें क्या दिलचस्पी थी?

भोलानाथ-(खिन्न हँसी के साथ) अरे बचपना था और क्या! जब हम मैट्रिक में पढ़ते थे तो उनके नाटक पढ़ने का बहुत शौक था लेकिन उन्हें देखने का अवसर प्राप्त न हुआ था.......

आनन्द-"खून का बदला खून" और "दर्दे ज़िगर"! (व्यंग्य से हँसते हैं)

भोलानाथ- अरे भाई उन दिनों हमारे तो वे स्पीलबर्ग और शेक्सपियर से कम न थे! हम सारे स्टूडैण्टस उनकी फिल्में देखकर उनकी एक्टिंग का आनन्द लेते थे ।

आनन्द-(हँसकर) और उनके फैन थे?
भोलानाथ- तुम तो यह जानते ही हो कि प्रसिद्ध लेखकों, नेताओं और अभिनेताओं को लोग साधारण आदमियों से कुछ ऊँचा ही समझते हैं , और उनसे तो दूर रहा, उनके साथ रहने वालों तक से बात करके फूले नहीं समाते । फिर यह तो प्रेम चोपड़ा का दायाँ हाथ था !

आनन्द- (अब समाप्त करो यह भूमिका के स्वर में) तो इनसे तुम्हारी भेंट हुई?
(फिर उठकर घूमने लगते हैं)

भोलानाथ- भेंट! तुम इसे भेंट ही कह सकते हो। हमारे नगर के हैं न डॉक्टर किशोरीलाल!

आनन्द-(घूमते हुए रुककर) हाँ, हाँ!

भोलानाथ- (चिढ़कर) मैंने इन्हें डॉक्टर किशोरीलाल के क्लीनिक पर बैठे देखा, इनकी बातें दिलचस्पी से सुनीं और शायद एक या दो बातों का उत्तर भी दिया था , बस.........

आनन्द- फिर तुम इन्हें घर ले आए?

भोलानाथ- (और भी चिढ़कर) अरे कहाँ, तुम बात भी करने दोगे। इस बात को तो दस वर्ष बीत गए। अब पिछले साल की बात है। उन दिनों जब मैं दिन-भर नौकरी की खोज में घूमता था। यह साहब, मुझे गली में मिल गए। और दूर ही से "नमस्कार" किया। मैं जल्दी में तो था पर क्षण भर के लिए रुक गया।

आनन्द- तो कहने का मतलब यह..........

भोलानाथ-(अपनी बात ज़ारी रखते हुए) इसने बड़े तपाक से हाथ मिलाया और कहा कि डॉक्टर किशोरीलाल आपकी बड़ी प्रशंसा किया करते हैं। आप मुझे पहचान तो गए हैं ..? मैंने कहा-हाँ,हाँ, प्रेम चोपड़ा । कहने लगे-बीमार है बेचारा, दर्द-ए-गुर्दा से!

आनन्द-दर्दे-ए-जिगर से नहीं? (हँसते हैं)

भोलानाथ-(व्यंग्य की ओर ध्यान न देकर)मैंने खेद प्रकट किया और उनका हाल पूछा । कहने लगा कि उसे भी दर्द-ए-गुर्दा की शिकायत है।

आनन्द-(ठहाका मारकर) अंग्रेजी में कहते हैं ना-बर्डस ओफ़ ए फेदर फ्लॉक टूगेदर ।

भोलानाथ- मैंने और भी शोक प्रकट किया । कहने लगा-कर्नल माथुर को दिखाने आया हूँ । कल चला जाऊँगा। मैंने कहा-तो आइए कुछ पानी-वानी पीजिए। कहने लगा-लाला बिहारीलाल प्रतीक्षा तो कर रहे होंगे, पर चलिए आप की बात कैसे टाली जा सकती है।

आनन्द-(ठहाका लगाते हैं) यह बिहारीलाल कौन थे?

भोलानाथ- (जलकर) जाने कोई थे भी या नहीं। मेरे तो पाँव तले से धरती निकल गई। बड़े ही ज़रूरी काम से जा रहा था और मैंने तो यों ही पानी-वानी के लिए पूछा था । खैर, ले आया और फ़ॉरमेलटी के तौर पर मैंने पत्नी से केवल ठंडे पानी का गिलास लाने के लिए कहा। पानी पीकर ये महाशय वहीं गली में बिछी हुई चारपाई पर लेट गए। मुझे जल्दी जाना था। मैंने सकुचाते हुए कहा कि मुझे ज़रा जल्दी है, आप किधर जा रहे हैं? लेकिन इन्होंने बात काटकर और टाँगें फैलाते हुए कहा- हाँ-हाँ आप शौक से हो आइए, मैं थक गया हूँ, ज़रा आराम करूँगा ।

आनन्द-(हँसकर) खूब!

भोलानाथ-(कंधे झाड़कर) तुम होते तो मेरी सूरत देखते । नई-नई शादी हुई थी।
(आनन्द फिर ठहाका लगाते हैं)

भोलानाथ- मरता क्या न करता । मुझे तो जल्दी थी, हारकर चला गया। वापस आया तो ये मज़े से बिस्तर बिछवा कर सो रहे थे और पत्नी बेचारी अन्दर गर्मी में तप रही थी। पहुँचा तो कहने लगी- आपका इतना घनिष्ठ मित्र तो मैंने देखा नहीं। आपके जाने के बाद कहने लगा-तुम तो शायद "नबाँ शहर" की हो। मैं चुप रही तो बोला-फिर तो हमारी बहन हुईं!

आनन्द- बहन!

भोलानाथ- अब कमला मुझ से पूछने लगी कि ये कौन है? क्या बताता? इतना कहकर चुप हो रहा कि हमारे गाँव के हैं। चारपाइयाँ हमारे पास केवल दो थीं। आखिर वह गरीब सख्त गर्मी में अन्दर फर्श पर सोई! ख्याल था कि दूसरे दिन चले जाएंगे;लेकिन पूरे सात दिन रहे और जग गए तो मैंने कसम खाकर कमला से कहा कि अब कभी नहीं आएँगे लेकिन यह फिर आ धमका है और कमला........(कमला प्रवेश करती है)

कमला-मैं पूछती हूँ, आप चुपचाप इथर आकर इधर बैठ गए हैं और वे मुझे इस तरह ऑर्डर दे रहे हैं कि जैसे मैं उनकी नौकरानी हूँ-"कमला पानी ला दो", "कमला हाथ धुला दो", "कमला" यह कर दो, "कमला" वह कर दो, ये कौन हैं? आप तो कहते थे , इन्हें जानता तक नहीं, फिर ये क्यों इधर मुँह उठाए चले आते हैं! इन्हें कोई ठौर-ठिकाना नहीं?

भोलानाथ-(घबराकर और कंधे झाड़कर) अब बताओ..... (उठकर खड़ा हो जाता है)

आनन्द- तुम ठहरो भाभी, मुझे सोचने दो।
(उठकर माथे पर हाथ रखे सोचते हुए घूमते हैं)

कमला- आप सोचकर करेंगे क्या? ये कोई इनके पुराने यार होंगे। मुझे इस बात से ही तो चिढ़ है कि आखिर ये मुझ से छिपाते क्यों हैं? क्या मैं इनके मित्रों को घर से निकाल देती हूँ?
(चारपाई के किनारे बैठ जाती है)

आनन्द-देखो भाभी.....

कमला- मैं कुछ नहीं देखती। आप देखिए! आप से तो हमारा कोई पर्दा नहीं । हमारे पास दो कमरे हैं और फालतू बिस्तर एक भी नहीं, फिर आप भी यहीं हैं। इनके मित्र तो बिस्तर बिछवा कर सो रहेंगे और मैं पड़ी ठिठुरा करूँगी बाहर बारमदे में ।

आनन्द- देखो भाभी, ये इनके मित्र नहीं, यह मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ।

कमला- तो फिर ये उन्हें साफ जवाब क्यों नहीं देते?

आनन्द-यदि इनसे यह हो सकता तब न!

भोलानाथ-(जो इस बीच में इधर-उधर घूमता रहा है, रुक कर कन्धे झाड़कर) अब मैं कैसे कहूँ? कमला!

कमला-आप भी बस!

आनन्द-देखो झगड़ने से कुछ न बनेगा, इस आदमी को भगा देना चाहिए ।

कमला- यही तो मैं कहती हूँ!

आनन्द-यह इनसे हो चुका । इन अतिथि महाशय की तो मैं खबर लेता हूँ।

(कुछ क्षण मौन- जिसमें आनन्द सोचते हैं और भोलानाथ अंगड़ाई लेता है, फिर--)

आनन्द-(धीमे स्वर में) इस वक्त वह कर क्या रहा है?

कमला-शायद बाहर गया है।

आनन्द-(जैसे तरकीब सूझ गई है, चुटकी बजाकर) मैं कहता हूँ भाभी तुम लिहाफ ले लो और चुपचाप लेट जाओ और यदि कराह सको तो कुछ-कुछ समय के बाद कराहती भी जाओ। (भोलानाथ से) देखो भाई, तुम कह देना कि तुम्हें भूख नहीं! मैं बहाना कर दूँगा कि जी भारी होने से मैं उपवास से हूँ और बस........(सीढ़ियों से पाँव की चाप आती है)

आनन्द-(मुड़कर) मैं कहता हूँ जल्दी करो (एक-एक शब्द पर ज़ोर देकर) ज....ल.....दी करो, इन्हीं कपड़ों को समेट लेट जाओ।
दृश्य दो 

(यहाँ पर छात्र - छात्राओं ने पहले दृश्य के छात्र - छात्राओं की जगह ली । )

(हाथ में दो लौकियाँ लिए बनवारी लाल प्रवेश करता है)
बनवारी - भोलानाथ ! भोलानाथ !  

भोलानाथ-आइए,आइए, किधर चले गए थे आप? ये हैं मेरे मित्र श्री आनन्द, जालन्धर में प्रोफेसर हैं, यहाँ प्रिंसिपल गिरधारीलाल से मिलने आए हैं और (बनवारी की ओर संकेत करके) ये हैं बनवारीलाल , मेरे गाँव के हैं । किसी ज़माने में प्रसिद्ध अभिनेता प्रेम चोपड़ा के साथ......

आनन्द और बनवारी - (एक साथ) आपसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई । (दोनों ज़रा हँसते हैं)

भोलानाथ- ये आप क्या उठा लाए? इतनी लौकियाँ? (कमला धीमे से कराहती है)

बनवारी- यों ही नीचे चला गया था । बाहर बिक रही थीं, (हँसकर) मैंने कहा चलो........
(कमला तनिक और ज़ोर से कराहती है)

बनवारी-(मुड़कर और चौंककर) क्या बात है? क्या बात है? (स्वर में चिन्ता)

भोलानाथ- इन्हें अचानक दौरा पड़ गया, बड़ी मुश्किल से हाथ आया है, अक्सर पड़ जाया करता है दौरा......हिस्टीरिया.......

बनवारी-तो आप इलाज-उपचार.....?

भोलानाथ-इलाज-उपचार बहुत हुआ । (फिर बात का रुख बदलकर) ये तो बीमार पड़ गईं और (ज़रा हँसकर) लौकियाँ आप इतनी उठा लाए । (फिर आनन्द से) क्यों भाई आनन्द, तुम तो कहते थे....
.
आनन्द- मैं तो आज उपवास से हूँ, तबीयत भारी है।

भोलानाथ- मैं भी खाने के मूड में नहीं ।

बनवारी- (अन्दर रसोईघर की ओर पग उठाते हुए) लौकी की खीर ...तो हिस्टीरिया में बड़ा लाभ करती है । और मैं पकाता भी अच्छा हूँ (जरा हँसकर) साथ ही अपने लिए दो भी रोटियाँ सेंक लूँगा और तरकारी भी लौकी की ही बन जाएगी। मेरा तो विचार है, आप भी खाएँ । मज़ा न आ जाए तो नाम नहीं । अन्दर अँगीठी तो होगी, कोयलों की आँच पर लौकी की खीर बनती भी ऐसी है कि क्या कहूँ! (रसोईघर में चला जाता है)

आनन्द- (धीरे से) यह ऐसे न जाएगा ।

बनवारी-(रसोईघर से) क्यों भाई मसाला कहाँ है?

कमला-(लेटे-लेटे) कह दो समाप्त हो गया है।

भोलानाथ-(ज़रा ऊँचे स्वर में ) मसाला तो मित्र, समाप्त हो गया!

बनवारी-(अन्दर से) और घी कहाँ है?

कमला-कह दो समाप्त हो गया ।

भोलानाथ- (कन्धे झाड़कर) अब यह कैसे कह दूँ?

आनन्द-(भोलानाथ से ऊँचे स्वर में) अरे घी नहीं लाए तुम, सवेरे ही भाभी ने कहा था कि घी खत्म हो गया है, कैसे गृहस्थी हो तुम! (धीरे से शरारत की हँसी हँसता है)

बनवारी- अच्छा! १५ रुपए का घी कम-से-कम आज के लिए तो लेता आऊँ । मसाला भी नहीं, और चीनी भी.....मेरा ख्याल है....नहीं! और दूध भी नहीं! मैं जाकर चन्द मिनटों में सब लाया । ये जब तक कुछ खाएँगी नहीं, कमज़ोरी दूर न होगी। (चला जाता है)

आनन्द- (आश्चर्य से) अज़ीब मेहमान है। जो आप का कर्त्तव्य पूरा कर रहा है और वह भी अपनी जेब से । ही इज़ ए लीच यानि की जोंक ।

भोलानाथ- मैं जानता हूँ आनन्द, यह जोंक है यानि की लीच , कोई और तरकीब सोचो । पिछली बार मुझसे २०० रुपए ऐंठ लिए थे।

कमला-(चारपाई से उछलकर) दिए आपने २०० रुपए।

भोलानाथ-(कंधे झाड़कर) अब मैं.......

कमला-और मैं पाँच पैसे माँगती हूँ, तो नहीं मिलते।

भोलानाथ-अरे भाग्यवान!

कमला-(क्रोध से) तो भुगतिए, २०० क्या मेरी ओर से दो हज़ार दे दीजिए। बस मुझे मैके छोड़ आइए!
आनन्द-(उल्लास से उछल कर) ओह (ताली बजाकर) स्प्लैंडिड, वाह खूब.....मैके....ठीक है। जल्दी करो, भाभी को लेकर  किसी पड़ोसी के यहाँ चले जाओ और वह आया तो मैं कह दूँगा, भाभी की तबीयत बहुत खराब हो गई थी, भाई साहब उन्हें मैके छोड़ने चले गए-क्यों? (प्रशंसा पाने की इच्छा से दोनों की ओर देखते हैं)
भोलानाथ-हाँ, यह तरकीब खूब! (पत्नी से) तुम ज़रा अन्दर पड़ोसिन से बातें करना । मैं कुछ देर के लिए उनके पति के पास बैठ जाऊँगा । (आनन्द से) किन्तु मित्र कहता हूँ यदि वह न गया! तो......

आनन्द- क्यों नहीं जाएगा? तुम्हारे जाते ही ताला लगाकर मैं भी खिसक जाऊँगा-बस!

कमला-वाह, ताला लगाकर आप चले जाएंगे तो जो बर्तन वह ले गया है-वे नहीं, आप यों कहना कि वे चले गए हैं, मैं भी जा रहा हूँ। बस निकल कर मैन मार्केट तक छोड़ आना ।

भोलानाथ- मैन मार्केट तक! यह ठीक है! (ठहाका मारता है)

आनन्द- हाँ, हाँ, पर तुम जल्दी करो, वह आ जाएगा ।

भोलानाथ-हाँ,हाँ, जल्दी करो (कमला को ट्रंक खोलने के लिए जाते देख कर) मैं कहता हूँ, नई साड़ी पहनने की ज़रूरत नहीं,तुम सचमुच मैके नहीं जा रही हो! और वे हमारे पड़ोसी तुम्हें इन कपड़ों में कई बार देख चुके हैं ।

कमला-(ट्रंक को ज़ोर से बन्द कर उठते हुए) मैं पूछती हूँ....

आनन्द- हाँ,हाँ, वहाँ पूछना । चलो, चलो......
(दोनों को धकेलते हुए ले जाते हैं)

                     तीसरा  दृश्य

(एक कुर्सी पर मिस्टर आनन्द बैठे हैं, दूसरी कुर्सी पर उनके पैर हैं । उनके दाईं ओर तिपाई पर जूठे खाली बर्तन रखे हैं । वे सिगरेट जलाने जा रहे हैं )
आनन्द-(उस दियासलाई को धरती पर पटक कर जो बुझ गई है) हूँ! क्या मज़ेदार खाना था ! मज़ा आ गया ! 
(भोलानाथ सीढ़ियों के दरवाजे से झाँकता है)

भोलानाथ-मैं कहता हूँ, हमें वहाँ बैठे-बैठे एक घंटा हो चुका है और तुमने अभी तक आवाज़ नहीं दी।
(उछल कर आनन्द उसके पास आ जाते हैं)

आनन्द- अरे , धीरे बोलो, वह रसोई घर में बैठा खाना खा रहा है।

भोलानाथ- (बर्तनों को देखकर) और यह तुम?.....

आनन्द-मैंने भी उपवास खोल लिया । कम्बख्त, लौकी की खीर तो ऐसी स्वादिष्ट बनाता है कि क्या कहूँ!

भोलानाथ-परन्तु......

आनन्द-परन्तु क्या? जो तय हुआ था, उसके अनुसार ही मैंने सब कुछ किया । पर वह एक दुष्ट है।

भोलानाथ-(सोचते हुए) तो गया नहीं?

आनन्द- वह इस तरह आसानी से नहीं जाएगा, ऐसे को साफ जवाब.....

भोलानाथ-परन्तु शिष्टता भी कोई चीज़ है.... तुम नहीं समझते आनन्द! (सिर खुजाते हुए कमरे में घूमता है)
आनन्द-साफ जवाब नहीं दे सकते तो भुगतो!

भोलानाथ-तुमने उससे कहा नहीं कि भाभी की तबीयत......

आनन्द-कहा क्यों नहीं। जब वह सब चीज़ें वापिस लेकर आया तो मैंने बुरा-सा मुँह बनाकर कहा कि भाभी की तबीयत तो बड़ी खराब हो गई। उन्होंने कहा कि मैं तो मैके जाऊँगी, और आप ठहरे बीवी के गुलाम । उसी क्षण लेकर चले गए ।

भोलानाथ-(अत्यन्त क्रोध से) बीवी के गुलाम!

आनन्द-(हँसकर और भी धीरे से भेद भरे स्वर में)अरे, वह तो मैंने केवल बात बनाने के लिए कहा था ।

भोलानाथ-(दिल ही दिल में क्रोध के घूँट पीकर) हूँ!

आनन्द-यह कहकर मैं ताला उठाने के लिए बढ़ा और वह रसोईघर में चला गया । मैंने जब कहा कि मैं तो जा रहा हूँ । कहने लगा-खाना तो खाते जाइएगा, लौकी की खीर बन रही है।

भोलानाथ-और तुम्हारे मुँह में पानी भर आया?

आनन्द- नहीं, मैंने कहा-मैं तो जाऊँगा।

भोलानाथ- फिर?

आनन्द- उसने बेफिक्री से अँगीठी में कोयले डालकर उन्हें सुलगाते हुए कहा -अच्छा तो हो आइए, पर आ जाइएगा जल्दी, ठण्डी खीर का क्या मज़ा आएगा?

भोलानाथ-(गुस्से से दाँत पीसकर)फिर! (व्यंग्य से)

आनन्द-तब मैंने दिल में सोचा कि यह इस तरह न जाएगा । कोई दूसरी तरकीब सोचनी पड़ेगी । चाहिए तो यह था कि मैं ताला लगाकर बाहर बरामदे में मिलता, पर भाभी की दो तश्तरियों ने......

भोलानाथ-(आकुलता से) फिर-फिर......

आनन्द- फिर क्या, मैंने सोचा कि इन्हें यहाँ छोड़कर घर से नहीं जाना चाहिए, कहीं कोई चीज़ ही न उठाकर चम्पत हो जाएँ, इसलिए बात बदलकर मैंने कहा-वैसे जाने की मुझे कोई जल्दी नहीं । यह आपने ठीक कहा कि खीर का मज़ा ताज़ी पकी ही में है । लाइए, देखें तो सही आप खीर कैसी बनाते हैं? बस, उन्होंने खीर तैयार की, लौकी ही की सब्ज़ी बनाई और हल्की-हल्की रोटियाँ सेंकीं- कसम से गज़ब का खाना बनाता है ! (भोलानाथ को गुस्से में देखकर) अब दोस्त , तुम भी खाना खा लो । भूखे पेट कुछ नहीं सूझेगा ।
(अन्दर कमरे से बनवारी रूमाल से हाथ पोंछता हुआ प्रवेश करता है)

बनवारी-(चौंककर) अरे! गए नहीं आप?

भोलानाथ-(जैसे कब्र से बोल रहा हो) गाड़ी मिस कर गए।

बनवारी- और कमला जी?

भोलानाथ-(चिढ़कर) उन्हें फिर दौरा पड़ गया ।

बनवारी- (गम्भीरता से) ओहो, तो कहाँ......

भोलानाथ-वेंटिक रूम में बिठा आया हूँ । दूसरी गाड़ी देर से जाती थी, इसलिए.....

बनवारी-(खेद के साथ अन्दर को मुड़ता हुआ) एक डिब्बे में खीर डाल देता हूँ। साथ ले जाइए, विश्वास कीजिए, लौकी की खीर हिस्टीरिया के दौरे में बड़ा लाभ करती है।

भोलानाथ-(क्रोध को छिपाते हुए) नहीं, कष्ट न कीजिए, मैं दवाई के साथ थोड़ा-सा दूध पिला आया हूँ।

बनवारी-आप ही लीजिए (आनन्द की ओर देखकर) क्यों प्रोफेसर साहब, इन्होंने भी तो सुबह का......

भोलानाथ-(अन्यमनस्कता से) मैं तो खाने के मूड में नहीं !

बनवारी-(खिन्न हुए बिना) क्यों न हों (तनिक हँसक्र) वह एक बार किसी ने एक साधु से पूछा था-खाने का ठीक समय कौन-सा है? उसने उत्तर दिया-सम्पन्न का जब मन हो और विपन्न को जब मिले। आप ठहरे धनी-मानी और हम (हि-हि करते हुए) निर्धन ! अच्छा, पान तो लेंगे न?

भोलानाथ-रूखेपन से) मैं पान नहीं खाता ।

बनवारी-(मुस्करा कर) और आप प्रोफेसर साहब?

आनन्द-( जो बहुत खा गया है) मुझे कोई आपत्ति नहीं ।
बनवारी-अच्छा मैं नीचे पनवाड़ी से पान ले आऊँ। (बेपरवाह से हँसते हुए चला जाता है)

भोलानाथ-(आकुलता से) अब क्या किया जाए? कमला कब तक पड़ोसी के यहाँ बैठी रहेगी? तुम तो मज़े से खाना खाकर कुर्सी पर डट गए हो।

आनन्द-भाई खाना खाने के बाद मेरी तो सोचने-समझने की शक्तियाँ जवाब दे जाती हैं, मैं तो सोऊँगा । 
(उठते हैं)

भोलानाथ-पर तुम कहते थे, इसकी खबर लूँगा......

आनन्द-(फिर बैठकर) वह तो ज़रूर लूँगा, पर दो घण्टे सोने के बाद।
(तन्द्रिल आँख से भोलानाथ की ओर देखते और हँसते हैं। भोलानाथ निराश-सा हाथ कमर के पीछे रखे सोचता हुआ घूमता है)

चौथा दृश्य 

(यहाँ पर छात्र - छात्राओं ने तीसरे दृश्य के छात्र - छात्राओं की जगह ली ।)

भोलानाथ-हो चुका तुम से । बाहर ताला लगाए देते हैं । स्वयं रो-पीट कर चला जाएगा । कमला और मैं किसी होटल में खाना खा लेंगे ।

आनन्द- (कुर्सी पर पीछे की ओर लेटकर जमाही लेते हुए) तो फिर मुझे क्यों घसीटते हो? मुझे नींद लगी है। (फिर कुर्सी से उठते हैं)

भोलानाथ- (जो तेज़ी से कमरे में घूम रहा है, अचानक रुक कर)आखिर क्या मतलब है तुम्हारा?

आनन्द-(आराम से कुर्सी में लेट जाते हैं) अरे भाई, तुम बाहर ताला लगा कर जाना चाहते हओ, लगा जाओ-उस दूसरे कमरे को अन्दर से बन्द कर जाओ और इस कमरे में बाहर से ताला लगा दो। मुझे तीन बए प्रिंसिपल गिरधारी लाल से मिलने जाना है । मैं उस कमरे से निकलकर बाहर से ताला लगाता जाऊँगा । अब जल्दी करो, नहीं तो वह आ जाएगा । (उठकर बाईं ओर के कमरे में चले जाते हैं )

आनन्द-(अन्दर से) लो मैं तो लेट गया । अब पान स्वप्न ही में खाऊँगा।
(भोलानाथ कुछ क्षण तक घूमता है, फिर तेज़ी से वह भी अन्दर चला जाता है । उसकी क्रोध से भरी चिड़चिड़ी आवाज़ आती है)

भोलानाथ-ताला कहाँ है? मैं कहता हूँ-ताला कहाँ है?.....कम्बख्त ताला.......मिल गया । 
(ताला हाथ में लिए आता है और उँगुली में कुंजी घुमाता है)
आनन्द-(अन्दर से) अरे देखो, यह उसका बैग भी बाहर रखते जाओ, नहीं तो इसी बहाने आ जाएगा।
(भोलानाथ अन्दर जाकर कपड़ों का पुराना भरा-सा बैग लेकर आता है। हैंड बैग को बाहर दीवार के साथ टिकाकर रखता है और दरवाज़ा बन्द करके ताला लगाने लगता है कि अन्दर से प्रोफेसर साहब आनन्द की आवाज़ आती है)

आनन्द-सुनो, सुनो ।

भोलानाथ- (फिर जल्दी से किवाड़ खोलकर ) कहो!

आनन्द- अरे बर्तनों को अन्दर रखते जाओ!
(भोलानाथ जल्दी-जल्दी तिपाई, कुर्सियाँ देता है और फिर जल्दी-जल्दी ताला लगाता है। जल्दी में चारपाई से ठोकर खाता है और बड़बड़ाते हुए चला जाता है । तभी दो बज़े का घंटा बजता है और बनवारी लाल मुँह में पान दबाए और कागज़ में लिपटी पान की एक गिलौरी एक हाथ में थामे दाखिल होता है ।)

बनवारी-(दरवाजे लगे हुए देखकर आवाज़ देता है) भोलानाथ !भोलानाथ! (फिर कमरे में ताला और बाहर अपना बैग पड़ा देखकर चौंकता है, मुसकराता है । फिर अपने आप से---)

बनवारी-खैर, अभी तो मैं सोऊँगा । (चारपाई बिछाता है, जो दूसरे कमरे के दरवाजे को बिल्कुल रोक लेती है। उस पर लेटकर सिगरेट सुलगाता हैऔर एक-दो कश लगाकर करवट बदल लेता है। थोड़ी देर में खर्राटे लेने लगता है । तभी तीन बजे का घंटा बजता है और बनवारी धूप की ओर देखता है और कहता है)

बनवारी -(अपने आप से) ओह, धूप कहाँ चली गई? (ऊपर रोशनदान का गत्ता हिलता है और किसी का हाथ बाहर निकलता है। वह चुपचाप करवट बदल लेता है। धीरे-धीरे गत्ते को हटाकर प्रोफेसर आनन्द सूट-बूट पहने रोशनदान में से बड़ी कठिनाई से उतरने का प्रयास करते हैं।)

बनवारी-(जैसे किसी की आहट से चौंककर) कौन है? (फिर चौंककर और उठकर) कौन,कौन? (शोर मचाता है) चोर...चोर....पकड़ो, पकड़ो!

आनन्द- मैं हूँ आनन्द! (आवाज़ गले में फँसी हुई है)

बनवारी-(पहले के स्वर में घबराहट लाकर) चोर...चोर.... दौड़ियो....भागियो.....!

(चार-पाँच आदमियों के भागते आने का स्वर । एक मारवाड़ी, एक हिन्दुस्तानी और दो-एक पंज़ाबी सीढ़ियों में प्रवेश करते हैं ।)

हिन्दुस्तानी - क्या बात है भाई, क्या बात है?

पंजाबी-(सबको पीछे धकेल कर) की गल ऐ, की गल ऐ, किद्धर चोरी होई है, किद्धर?

बनवारी-(आनन्द की ओर संकेत करके) यह देखिए आजकल के बेकार जैंटलमैन। कोई काम न मिला तो यही व्यवसाय अपना लिया । दिन दहाड़े डाका डाल रहे हैं । मेरे मित्र हैं न पंडित भोलानाथ । मैं उनसे मिलने के लिए आ रहा था । देखता हूँ तो ये अन्दर घुसे जा रहे हैं । वह बैग शायद पहले निकाल कर रख चुके थे । (व्यंग्य से आनन्द की ओर देखकर) उतरिए महाशय, अब ज़रा चन्द दिन बड़े घर की रोटियाँ तोड़िए ।

हिन्दुस्तानी- (आगे बढ़कर) यह बैग उठा रहे थे ।

बनवारी- न-न इसे हाथ न लगाइएगा । इसमें सब गहने भरे होंगे , पुलिस ही आकर खोलेगी ।

आनन्द-(बिल्कुल घबरा गया) मैं....मैं....जो...

हिन्दुस्तानी-अरे, मैं-मैं क्या, नीचे उतर! मार-मार कर भूसा बना देंगे !(रुककर) (दार्शनिक भाव से) आजकल की बेकारी ने नौसवानों को चोर और डाकू बना दिया है!

पंजाबी-ओए, उतर ओए! ओथेई की टंगया गया एँ। सूट ताँ वेखो।
(आगे बढ़कर आनन्द को पाँव से पकड़कर घसीटता है। वह धम से फर्श पर गिरता है। पंजाबी युवक दो-चार चौरस थप्पड़ उसके मुँह पर लगा देता है)

आनन्द-(क्रोध और अपमान से जलकर) मैं पंड़ित भोलानाथ का मित्र प्रोफेसर आनन्द....

पंजाबी-चल-चल प्रोफेसर दा बच्चा; जा के थाने वालयाँ नू दस्सीं कि तू प्रोफेसर हैं जां प्रिंसिपल! (सब ठहाका लगाते हैं)

बनवारी-मैं भी तो उनका मित्र हूँ, लेकिन उनकी अनुपस्थिति में मकान तो नहीं तोड़ता-फिरता । (फिर गर्जकर) क्या किया जाए! मैं अभी पुलिस को टेलीफोन करता हूँ । आप इसे पकड़ कर रखें (जाते हुए) और देखिए बैग को हाथ न लगाइएगा । (कई और व्यक्ति आते हैं )

आने वाले-क्या बात है? क्या हुआ? क्या हुआ?

आनन्द- मैं कहता हूँ........

पंजाबी-(एक और थप्पड़ जमा कर) तूँ की कहना एँ, नाले चोर नाले चतुर! (भीड़ को चीरता हुआ भोलानाथ आता है)
भोलानाथ- क्या बात? क्या बात?

हिन्दुस्तानी-समझिए बच गए। आपके मित्र ने इसे ठीक मौके पर चोरी करते पकड़ लिया ।
आनन्द-(जिसका साहस भोलानाथ के आने से बढ़ गय है) मैं कहता हूँ.......

हिन्दुस्तानी-(अदा से) यह कहता है......

पंजाबी- ऐह केहँदा ऐ (चबा-चबा कर) नाले चोर, नाले चतुर! ऐह हैंड बैग कित्थे लै चलिया सी....(सब हँसते हैं)

भोलानाथ- (बढ़कर पंजाबी की गिरफ्त से आनन्द को छुड़ाता हुआ)छोड़िए-छोड़िए, आप सब जाइए । ये मेरे मित्र हैं, मैं इनसे निपट लूँगा ।

हिन्दुस्तानी-लेकिन चोरी......
भोलानाथ-मैं कहता हूँ, इन्होंने कोई चोरी नहीं की । आप जाइए। मेरी पत्नी को आना है, आप सीढ़ियाँ रोके हैं ।
(वे बड़बड़ाते हुए चले जाते हैं)

पंजाबी- (रुक कर) पर ओह बाबू।

भोलानाथ-(चीखकर) वह शैतान गया नहीं?
(पंजाबी जल्दी-जल्दी चला जाता है)

आनन्द-वह तो पुलिस में रिपोर्ट लिखाने गया है।

भोलानाथ-आखिर क्या हुआ?

आनन्द-होता क्या? सब उसकी बदमाशी है।

भोलानाथ- आखिर बात क्या हुई?

आनन्द- होता क्या? तुम्हारे जाने के बाद मैं लेट गया तो कुछ ही देर बाद वह आया । पहले तुम्हें आवाज़ें दीं फिर शायद ताला देख बड़ बड़ाया । चारपाई घसीट कर बिल्कुल उस दरवाजे के आगे बिछा कर लेट गया। मैं......

भोलानाथ- तुम्हारे साथ ऐसा ही होना चाहिए था, कहा न था कि चलो हमारे साथ।
आनन्द- साढ़े तीन बजे मुझे प्रिंसिपल साहब से मिलना था । आखिर प्रतीक्षा करके मैं तैयार हुआ, पर जाऊँ किधर से ? मैं रोशनदान तक चढ़ा, फिर उतरने वाला था कि वो उठ गया ।

भोलानाथ- वह तो तुम्हारा भी उस्ताद निकला । मैंने कहा था न कि अव्वल दर्जे का पाजी है।

आनन्द-उसने शोर मचा दिया और इतने आदमी इकट्ठे कर लिये । उस पंजाबी ने तो कई थप्पड़ मेरे मुँह पर जड़ दिए। (बनवारी प्रवेश करता है)

बनवारी-(जैसे कुछ जानता ही नहीं ) ये विचित्र दोस्त हैं आपके! यह तो सब कुछ उठाकर ही ले चले थे ।

भोलानाथ-आपको शर्म नहीं आती, ये तो अन्दर ही थे।

बनवारी-पर मुझे क्या पता था , मैंने आवाज़ें दीं, ये बोले तक नहीं ।

भोलानाथ- सो रहे होंगे।

बनवारी- तो जब जगे थे, तब मुझे आवाज़ देते, रोशनदान से उतरने की क्या ज़रूरत?

भोलानाथ- अच्छा बन्द करिए इस मामले को । कमला की तबीयत खराब हो रही है। मैं इसी गाड़ी से गुरदासपुर ले जाऊँगा । चलो, आनन्द तुम मेरे साथ चलो । अब प्रिंसिपल साहब से कल मिल लेना।

बनवारी-आप गुरदासपुर जा रहे हैं । आपका ससुराल तो फिरोज़पुर है?

भोलानाथ-फिरोज़पुर नहीं, गुरदासपुर । वहाँ कमला के बड़े भाई रहते हैं ।

बनवारी-(चौंककर) भाई!

भोलानाथ- म्युनिसिपल कमेटी में हैड क्लर्क हैं ।


बनवारी-म्युनिसिपल कमेटी में (उल्लास से हल्की-सी ताली बजाकर) यह आपने अच्छी खबर सुनाई। मैं स्वयं परेशान था । वहाँ म्युनिसिपल कमेटी में मुझे काम है। गुरदासपुर में मेरा कोई परिचित नहीं था । अब आप साथ होंगे तो सब कुछ मज़े से हो जाएगा । ठहरिए, मैं अपना सामान बाँध लूँ । 
(सामान बाँधने लगता है । भोलानाथ और कमला के चेहरे उतरे हैं । वे धीरे-धीरे चलते जा रहे हैं) 

अरे रुकिए तो! बस, यह चादर डालकर बैग बंद कर देता हूँ । अरे! यह लौकी का हलवा बच गया है, वह तो पैक कर लूँ । अरे वाह! अभी एक लौकी भी बची है, यह भी शायद वहाँ काम आ जाए । उठा लेता हूँ। 
(लौकी कंधे पर रखता है, बैग हाथ में उठाता है, पीछे-पीछे चल पड़ता है) 

No comments:

Post a Comment